Friday, December 14, 2012

जिंदगी |

आज बैठ कर सोचा की जिंदगी क्या है
चंद कागज के टुकडों के लिए दिन रात खटकना
या फिर किसी की याद में हर समय तड़पना
किसी के प्यार को पानी की ख्वाइश
या अपने मुक्कद्दर को दिन भर परखना

किसी की लिए किसी की किलकारी
किसी के लिए बस दाना और पानी
कोई बन बैठा है सरताज जिंदगी का
तो कहीं कोई है मोहताज़ जिंदगी का

कहीं चमचमाती हुई अय्य्याश जिंदगी
कहीं भूखी बिलखती अधनंगी जिंदगी
लक्ष्यहीन सी चलती उदास जिंदगी
चुलबुले पलों वाली बदमाश जिंदगी

ले चल कहीं उदा के जहाँ जी सकू तुझे
कुछ खोने के दर से रो सकू जहाँ
दुनिया क हर शख्स से होकर बेखबर
पानी की लहेरो से मिल सकू जहाँ

ना शिकायत हो जहाँ किसी से
ना किसी को कुछ देने की आशाए
बस ले चल कहीं उदा के जहाँ जी सकू तुझे
ए सुनहरे पंखो वाली अनजान जिंदगी ।।
 

2 comments:

  1. sahi hai dost... bahot mast likha hai.. tune to ZNMD ke Farhan akhtar ki yaad dila di .. :P Keep it up...!! Ab bhi time mil jata hai tujhe likhne ka... :)

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  2. bhai nice poem..says much about your state of mind ...mai to bas yahi kahunga

    zindagi ka yahi ek nahi roop hai,
    aaj chaav to kal dhoop hai..
    has ke jiyo har pal yahan
    rona nahi, khush rehna hai kaam yahan.

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