Sunday, January 9, 2011

ना जाने क्यों ||

ना जाने क्यों जिंदगी को तेरी आदत सी पड़ गई 
जानते हैं की हम नहीं हैं तेरे काबिल 
ना जाने क्यों तू मेरी चाहत बन गई
जिंदगी चल रही है बस तेरे इंतज़ार में
आई जो तू मेरी साँसे थम गई
जानते थे की तुम हो कुछ पलों क लिए
फिर क्यों मुझे तेरी आदत सी पड़ गई ||
अब तुम दूर हो और हम दूर हैं
तुम खुश हो और हम मजबूर हैं
जीना होगा ऐसे भी कभी सोचा भी नहीं
रो देते हैं अक्सर तेरी तस्वीर देख कर
खुश रहना है कैसे तुम्हारे बिना, तुमने सिखाया क्यों नहीं
जिंदगी चल रही है बस जिंदगी की खातिर
क्यों तुम एक ख्वाब बनकर मेरे सीने में बस गई
सोचता हू क्यों जिंदगी को तेरी आदत सी पड़ गई ||

8 comments:

  1. hey there lovely prose!!
    i too have made a prose related to it can have an look..
    gud time

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  2. Thank you :)
    I had a deep look out there....you got some excellent work :)

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  3. Nice said G :) :) but write some happy poem also :)

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  4. Thank you G :) :) ....Hmmm a day i will write :) :)

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  5. Wah!!!
    Maza aa gaya ...nicely written.

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  6. Poem comes out of sadness, but sometimes happy poems too turn out to be sweet....(don't mind Geet... but this is for u)... Girish, I can feel ur bebasi here.... I will pray for you that you find some happiness in your life so that you can write happy poems for Geet too. :)

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